Thursday, 14 September 2023

कैसे आए विधिक प्रणाली और न्यायालयों में भारतीय भाषाएँ? [हिन्दी भाषा के विशेष सन्दर्भ में]

 

कैसे आए विधिक प्रणाली और न्यायालयों में भारतीय भाषाएँ? [हिन्दी भाषा के विशेष सन्दर्भ में] 

      अनुराग दीप 

आचार्य, 

भारतीय विधि संस्थान, नई दिल्ली

९६५४६२९२४१  

  1. परिदृश्य 


१४ सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाया जाता है. भारत के संविधान में आठवीं अनुसूची में अभी २२ भाषाएँ हैं और मेरी दृष्टी में सभी राष्ट्रीय भाषाएँ हैं. संविधान शिल्पियों ने लोकतान्त्रिक आधार, स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों को ध्यान में रखकर और महात्मा गांधी के स्वप्न को विचार कर हिन्दी को विशेष स्थान दिया है. प्रमोद सिन्हा बनाम सुरेश सिंह चौहान [31-07-2023] के मामले में उच्चत्तम न्यायालय के न्यायाधीश दीपंकर दत्ता महोदय ने अपने आदेश में कहा है कि हिंदी राष्ट्र भाषा है. किसी भी स्वाधीन देश के चहुंमुखी विकास के लिए यह अनिवार्य है कि वह अपनी भाषा में कार्य करे. विश्व का कोई भी ऐसा देश नहीं है जिसने अपनी भाषा की उपेक्षा कर विकास की सीढीयाँ चढ़ी है. इस कारण भारत के संविधान में भाग सत्रह में अनुच्छेद ३४३ से ३५१ में भाषा संबंधी प्रावधान रखा गया. संविधान सभा ने निर्धारित किया कि भारत की विधि प्रणाली को हिन्दी और भारतीय भाषा के अनुसार ही चलाना होगा. यह उचित भी है क्योंकि स्वराज सही अर्थों में तभी आएगा जब देश अपनी भाषा में काम करेगा. यही महात्मा गांधी का भी स्वप्न था. लेकिन भाषा संबंधी यह परिवर्तन धीरे धीरे व्यवस्थित रूप से ही हो सकता था,  क्योंकि अंग्रेजों की गुलामी और मैकाले की नीति के कारण भारतीय भाषाओं को तैयार होने में कुछ वक्त लगेगा.  भारत में आजादी के बाद से ही विधायिका और कार्यपालिका ने अपनी भाषा में कार्य करने का श्री गणेश कर दिया था, यद्यपि कि अंग्रेजी को राज काज की भाषा के रूप में जारी रखा गया था. संविधान के अनुच्छेद ३४४(१) के अनुसार राष्ट्रपति महोदय को संविधान लागू होने के पांच वर्ष के बाद [१९५५] एक भाषा आयोग का गठन करना था. राष्ट्रपति महोदय ने बी जी खेर महोदय की अध्यक्षता में इक्कीस सदस्यों के प्रथम भाषा आयोग का गठन कर दिया जिसका प्रमुख कार्य यह देखना था कि भारतीय भाषा किस प्रकार हमारी सांविधानिक व्यवस्था का अटूट हिस्सा बने. बी जी खेर आयोग ने अपनी संस्तुति एक वर्ष के अन्दर ही १९५६ में दे दी. इस रिपोर्ट का अध्ययन करने  के लिए राष्ट्रपति महोदय ने २० संसद सदस्यों की समिति बना दी. इस समिति ने अपनी राय तीन साल बाद १९५९ में दी. इस समिति की रिपोर्ट की संसद में चर्चा हुई. इस चर्चा के बाद एक राष्ट्रपति आदेश, १९६० में पारित किया गया. प्रथम भाषा आयोग, संसदीय समिति, संसदीय स्वीकृति और राष्ट्रपति के आदेश के अनुसरण में विधायिका और कार्यपालिका ने अपने अनेक कार्य अपनी भाषा आरम्भ कर दिया था. राष्ट्रपति के इस आदेश के बाद संविधान के दोनों अंग [विधायिका और कार्यपालिका] और भी गति से देश की भाषा में कार्य करने लगे. उपर्युक्त विशेषज्ञ समितियों, संसद और विधिक आदेश में सिद्धांत रूप में यह सहमति बन गई थी कि सर्वोच्च न्यायालय की भाषा अंततः हिन्दी होगी. भाषा के मुद्दे को सुचारू रूप से चलाने और उच्च न्यायालयों के लिए संसद से विधि बनाने की अपेक्षा की गई थी. संविधान के अनुच्छेद ३४८ (१) में कहा गया है कि जबतक संसद विधि बनाकर प्रावधान नहीं करती, विधायिका, कार्यपालिका की भाषा अंग्रेजी होगी. इसलिए संसद ने राजभाषा अधिनियम, १९६३ पारित किया. इसमें अब केन्द्रीय अधिनियमों के हिन्दी पाठ को प्राधिकृत माना गया है. 

इसमें उच्च न्यायालयों में भाषा संबधी प्रावधान किये गए. लेकिन देश की आजादी के ७५ वर्षों के बाद भी न्यायालयों में भारतीय भाषा के प्रयोग को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है. उत्तर भारत के कुछ राज्यों में न्यायालय की भाषा हिंदी है लेकिन कार्यवाही का बड़ा हिस्सा [विशेषकर उच्च न्यायालयों में] अंग्रेजी में ही होता है. उच्चतम न्यायालयों में शायद ही कोई कार्यवाही भारतीय भाषा में होती है. मद्रास में न्यायालय की भाषा तमिल करने के लिए आन्दोलन हो रहा है.  

  1. सर्वोच्च न्यायालय : सकारात्मक दृष्टिकोण 

२५ मार्च २०२३ को मदुरै के एक कार्यक्रम में भारत के मुख्य न्यायमूर्ति डॉक्टर डी वाई चंद्रचूड महोदय ने सकारात्मक बातें कही हैं. उन्होंने कहा: 

I am cognisant of the language barrier and the ensuing impact of this barrier on opportunities for young graduates. English is not our first language. We think and formulate our thoughts in our mother tongues. However, I implore all young lawyers who are facing some difficulty with communication in English not to be demotivated,”...“I request the judges of the Madras High Court to be encouraging towards the young juniors and not let language become a barrier.”...“With respect to the demand raised for enabling Tamil as an official language of the Madras High Court, perhaps a constitutional amendment would be necessitated having due regard to the provisions of Article 348 of the Constitution,”

न्यायमूर्ति चंद्रचूड ने मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से अनुरोध किया है कि भाषा को न्याय की प्राप्ति में बाधा न  होने दें. इसका अर्थ यह हुआ कि कोई अधिवक्ता यदि उच्च न्यायालय में तमिल में बहस करना चाहता है तो उसे अपनी बात रखने दें. उन्होंने इसका वैज्ञानिक कारण बताते हुए कहा कि अंग्रेजी हमारी प्रथम भाषा नहीं है. हम अपने विचारों को अपनी मातृभाषा में ही सोचते और सूत्रबद्ध करते हैं. इसलिए युवा अधिवक्ताओं को भाषा को लेकर निराश होने की जरूरत नहीं है. उनका आशय यह था कि अंग्रेजी के बदले अपनी भाषा में वकालत करना स्वाभाविक है. उन्होंने यह भी स्मरण दिलाया कि तमिलनाडू में न्यायालय की भाषा को तमिल करने के लिए संविधान में संशोधन की जरूरत हो सकती है. यह समझना मुश्किल है कि क्यों किसी संविधान  संशोधन की जरुरत है जबकि विधि बनाकर यह कार्य हो सकता है. बहरहाल भाषा के प्रश्न को मुख्य न्यायमूर्ति चंद्रचूड महोदय ने सरकार और संसद के पाले में डाल दिया है क्योंकि विधि बनाने का कार्य उसी का है. इसी प्रकार २६ जनवरी २०२३ को उन्होंने उच्चतम न्यायालय के १००० से ज्यादा निर्णयों   का भारत की विभिन्न भाषाओं में भाषांतरण जारी किया जिसके लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की सहायता ली गई है। ०९ मई २०२३ को समलैंगिक विवाह के मुद्दे पर संविधान पीठ की सीधी सुनवाई (लाइव स्ट्रीमिंग) के दौरान भी उन्होंने कहा कि तकनीक की सहायता से जल्द ही अंग्रेजी के साथ ही अन्य भाषाओं में भी इस तरह के प्रसारण देखे और सुने जा सकते हैं. प्रधानमंत्री महोदय ने भी मुख्य न्यायाधीश के प्रयासों की सराहना की है. 

  1. नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी और प्रवेश परीक्षा 


 मुख्य न्यायमूर्ति चंद्रचूड महोदय न  केवल न्यायालयों में भारतीय भाषा के प्रश्न को विज्ञान और संविधान के अनुसार सहानूभूतिपूर्वक विचार कर उसे क्रियान्वित कर रहे हैं अपितु उन्होंने राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालयों में विधिक शिक्षा में अंग्रेजी के एकाधिकार को लेकर भी तीखी टिपण्णी की है. राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालयों (नेशनल ला यूनिवर्सिटी) में प्रवेश परीक्षा केवल अंग्रेजी माध्यम में ही होती है. ज्ञातव्य हो कि आई आई टी, एम्स, नीट जैसी परीक्षाएं अंग्रेजी के साथ ही कई भारतीय भाषाओँ में हो रही हैं जिसमें लाखों की संख्या में विद्यार्थी बैठते हैं. लेकिन नेशनल ला यूनिवर्सिटी भारतीय भाषा में प्रवेश परीक्षा करने में आनाकानी कर रही है. १५ अप्रेल २०२१  को मुख्य न्यायमूर्ति चंद्रचूड महोदय ने अपने एक भाषण में इसे समता के मौलिक अधिकार की भावना के विरुद्ध बताया. उन्होंने कहा:

The discrimination begins even before one enters law school. Most of the top law schools, which offer the five-year integrated law course, conduct admissions through a competitive test which is only in English, besides English also being a separate component of testing. As a result, only the privileged, with access to high-quality English medium education, are able to qualify, while the underprivileged students, whose earlier education has been in other languages and who aspire to enter into the judicial services, are deprived of learning at these institutions.

इसका हिंदी भाषांतरण निम्नवत है--

लॉ स्कूल में प्रवेश करने से पहले ही भेदभाव शुरू हो जाता है। अधिकांश शीर्ष लॉ स्कूल, जो पांच वर्षीय एकीकृत कानून पाठ्यक्रम की पेशकश करते हैं, एक प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से प्रवेश लेते हैं जो केवल अंग्रेजी में है, इसके अलावा अंग्रेजी भी परीक्षण का एक अलग घटक है। नतीजतन, उच्च गुणवत्ता वाली अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा तक पहुंच रखने वाले केवल विशेषाधिकार प्राप्त लोग ही अर्हता प्राप्त करने में सक्षम हैं, जबकि वंचित छात्र, जिनकी पहले की शिक्षा अन्य भाषाओं में रही है और जो न्यायिक सेवाओं में प्रवेश करने की इच्छा रखते हैं, इन संस्थानों  में सीखने से वंचित रह जाते हैं। 

चंद्रचूड महोदय ने यह सच ही कहा है कि भाषा के आधार पर विभेद समता के सिद्धांतों का उल्लंघन है क्योंकि जिस विद्यार्थी को अंग्रेजी के अच्छे और महंगे स्कूलों में पढाई का मौका मिला है उसके लिए प्रवेश प्रणाली ज्यादा लाभदायक है. संविधान का अनुच्छेद १४ समान अवसर की बात करता है. अनुच्छेद २९(२) भी यह साफ कहता है कि किसी शिक्षा संस्थान में भाषा के आधार पर विभेद नहीं किया जाएगा। यह प्रावधान अल्पसंख्यक संस्थाओं के आलोक में किया गया है लेकिन इसकी भावना सभी संस्थाओं के सम्बन्ध में लागू है. राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के सम्मानित कुलपतियों को इस विषय पर ध्यान देना चाहिए।  विश्वविद्यालय ज्ञान के मंदिर हैं। न्यायालय न्याय के मंदिर हैं।   विधिक शिक्षण केंद्र ज्ञान के मंदिर और न्याय के मंदिर के बीच के सेतु हैं। शिक्षण केंद्रों के अध्यापक और कुलपति ज्ञान मंदिरों के पुजारी हैं। विद्यार्थी भक्त की तरह हैं। पुजारियों को यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि ज्ञान का द्वार केवल अमीर और साधन संपन्न भक्तों तक ही नहीं सीमित नहीं रहना चाहिए. इस लेखक ने भी नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के वरिष्ठ विद्वान अध्यापकों, कुलपतियों आदि से व्यक्तिगत अनुरोध किया है जिन्होंने यह बताया है कि प्रवेश परीक्षा के बहुभाषी कराने के मुद्दे पर विचार मंथन चल रहा है. जो अमृत इस मंथन से निकलेगा वह देश में समानता और समावेशी विकास के नए द्वार खोलेगा. 

  1. मुख्य न्यायाधीश की राय 

मुख्य न्यायमूर्ति चंद्रचूड महोदय के विचारों और प्रयासों की सरहना होनी चाहिए. उनके दृष्टिकोण से आशा की एक सुनहरी किरण दीख रही है. इसके पूर्व के मुख्य न्यायाधीशों में से न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने भारतीय भाषाओँ में निर्णय के लिए प्रयास किया था. भाषा को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के तौर तरीके में यह परिवर्तन सुखद आभास कराता है. २०१४ में नई सरकार के आने के बाद से ही भाषा को लेकर एक नए तरह की गंभीर पहल दीख रही है. इसी क्रम में २०१६ में भारत सरकार ने उच्च और उच्चत्तम  न्यायालयों  में भारतीय भाषाओं के प्रयोग को लेकर भारत के मुख्य न्यायाधीश राय ली थी.  मुख्य न्यायाधीश ने  इस बारे में नकारात्मक रिपोर्ट दी थी (दैनिक जागरण ११ मई २०१६). वैसे तो संविधान या किसी भी अधिनियम में यह प्रावधान नहीं है कि भाषा संबंधी परिवर्तन करने के पूर्व मुख्य न्यायाधीश से सलाह ली जायेगी. भारत के संविधान में अनुच्छेद ३४३ के अनुसार संघ की राजभाषा हिंदी है. संविधान में भाग पांच में ‘संघ’ के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय भी शामिल है. संविधान के प्रावधान ३४८ के अनुसार न्यायालयों में भाषा को लेकर संसद क़ानून बना सकती है. इसी प्रकार राज्यों में राज्यपाल राष्ट्रपति की सहमति से उच्च न्यायालय की कार्यवाही उस राज्य की भाषा में कर सकता है.  इसके बावजूद भारत सरकार ने मुख्य न्यायाधीश  से राय ली क्योंकि २१ मई १९६५ का  केंद्रीय मत्रिमंडल का एक प्रस्ताव कहता है कि न्यायालयों में भाषा के सम्बन्ध में कोई निर्णय लेने के पूर्व सर्वोच्च न्यायाधीश की राय लेनी चाहिए. इसी के अनुसरण में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश की सहमति  से उत्तर प्रदेश में १९६९ में उत्तर प्रदेश में और १९७१ में मध्य प्रदेश में और १९७२ में बिहार में हिंदी को उच्च न्यायालय की भाषा के रूप में अनुमति दी गई. राजस्थान के उच्च न्यायालय में तो हिंदी के प्रयोग के लिए प्रावधान १९५० में ही कर दिए गए थे.  भारत सरकार को इस सुअवसर का लाभ लेना चाहिए और मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड महोदय से उच्च और उच्चत्तम न्यायालय में  भारतीय भाषाओं के सम्बन्ध में परिवर्तन के लिए सलाह लेनी चाहिए. 

  1.  हिंदी भाषा, राजनीति और न्यायिक अर्हता 

संविधान के शिल्पियों विशेषकर भारत रत्न डॉक्टर अम्बेडकर ने संविधान सभा के माध्यम से कुछ प्रावधानों को आने वाली संसद के लिए छोड़ दिया था. लेकिन उन्होंने यह कभी नहीं सोचा था कि इन विषयों पर निर्णय लेने में ७० साल से भी ज्यादा समय लग जायेंगे.  भाषा के प्रश्न पर २०१४ में भी भारत सरकार ने एक जनहित याचिका के जवाब में कहा था कि उच्च और उच्चत्तम न्यायालय की भाषा को हिंदी बनाने के सम्बन्ध में संविधान संशोधन करने का उसका कोई इरादा नहीं है. इसके दो कारण हैं. पहला कि संविधान संशोधन की आवश्यकता ही नहीं है. संविधान के अनुच्छेद ३४८(१) (क) के अनुसार उच्च और उच्चत्तम न्यायालय की भाषा केवल तभी तक अंग्रेजी रहेगी जब तक कि संसद विधि बनाकर कोई अन्य प्रावधान नहीं कर देती. अस्तु संसद विधि बनाकर भारतीय भाषाओं के लिए प्रावधान कर सकती है. ऐसा एक प्राइवेट मेंबर बिल २०१८ में प्रस्तुत भी किया गया था. दूसरा कारण राजनीतिक था. भाषा का प्रश्न एक संवेदनशील प्रश्न है. राजनीतिक दल के नेता विशेषकर अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के राज्य स्तरीय दल इसका अक्सर ही दुरूपयोग करते है. नई सरकार के लिए कोई कठोर निर्णय लेना संभव नहीं था.  २८ जनवरी २०१६ को सर्वोच्च न्यायालय ने हिंदी में प्रस्तुत एक याचिका स्वीकार कर ली. पटना के एक अधिवक्ता ने एक जनहित याचिका उच्चत्तम  न्यायालय में हिंदी में दायर की थी. आरम्भ में यह कहा गया था कि वे याचिका अंग्रेजी में दायर करें पर बाद में हिंदी की याचिका को स्वीकार कर लिया गया.  भारतीय भाषाओं से प्रेम रखने वालों के लिए यह बड़ी राहत भरी खबर है क्योंकि संविधान के प्रावधान ३४८ के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय में काम काज की भाषा केवल अंग्रेजी है, जिसे संसद विधि बनाकर बदल सकती है. परन्तु संसद और  सरकारों ने इसपर ध्यान नहीं दिया.   ४ अप्रैल २०१६ को उच्चत्तम न्यायलय ने इस जन हित याचिका को ख़ारिज कर दिया था जिसमें यह मांग की गई थी कि न्यायालय संसद को संविधान संशोधन का आदेश दे ताकि  उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में हिंदी का  प्रयोग हो सके. उच्चत्तम न्यायालय ने ऐसा आदेश देने से मना कर दिया क्योंकि न्यायालय संसद को संशोधन करने की उपदेश, सन्देश या सुझाव तो दे सकती है परन्तु आदेश नहीं. यह निर्णय सही था. संसद को क़ानून बनाने का  कोई बाध्यकारी आदेश देना सर्वोच्च न्यायालय के दायरे से बाहर है. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के दायरे में है कि वह मुक़दमे को अपने यहाँ हिन्दी या अन्य भारतीय भाषा में सुनना सर्वोच्च न्यायालय के हाथ में है. यह शक्ति उन्हें अनुच्छेद ३२ और १४२ में न्यायिक व्याख्या से प्राप्त है. परन्तु १९७६ में मधुलिमय बनाम वेमूर्ति के मामले में समाजवादी चिन्तक राजनारायण को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने तर्क हिंदी में रखने से इसलिए मना कर दिया था क्योंकि न्यायालय के जज हिंदी नहीं समझ पा रहे थे. यह अत्यंत खेदजनक था कि न्यायाधीश देश की भाषा नहीं समझ पा रहे थे. वास्तव में हमें ऐसे न्यायाधीशों की जरुरत है जो अंग्रेजी के साथ ही कोई एक भारतीय भाषा अवश्य जानते हों. इसके लिए यदि जरुरी हो तो क़ानून भी लाना चाहिए. 

  1. न्यायालय में भारतीय भाषा के लिए विधेयक 


श्री गोपाल चिन्य्या शेट्टी, सांसद, उत्तरी मुंबई के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और जिला न्यायालय (राजभाषा का प्रयोग) विधेयक, 2018 प्रस्तुत किया गया. यह एक अधिकार केन्द्रित प्रणाली का सृजन करता है जिसके अनुसार किसी भी मुकदमेबाज [पेटिशनर] को यह अधिकार होगा कि वह केंद्र की राज भाषा में या उस राज्य की राजभाषा में न्यायालय की कार्यवाही चलाने के लिए एक आवेदन दे सकता है. उस न्यायालय का यह कर्तव्य होगा कि वह उसी राजभाषा में कार्यवाही करे. संविधान में उच्च और उच्चत्तम न्यायालय की भाषा अंग्रेजी है. जो पेटिशनर अंग्रेजी में कार्यवाही चाहते हैं वे उसे वैसे ही जारी रख सकते हैं जैसे अभी हो रहा है. अभी कोई पेटिशनर यदि कार्यवाही को हिन्दी में करना चाहे तो सर्वोच्च न्यायालय उसे मन कर देती है क्योंकि संविधान के प्रावधान के अनुसार कार्यवाही अंग्रेजी में ही होगी, जब तक कि संसद कोई क़ानून नहीं बना देती. गोपाल शेट्टी विधेयक के अनुसार अब पेटिशनर को अधिकार होगा कि वह कह सके कि कार्यवाही हिन्दी में हो क्योंकि संविधान के अनुसार केंद्र की राज भाषा हिन्दी भी है. अन्य राज्यों [जैसे तमिलनाडू] में जो लोग कार्यवाही अंग्रेजी में चाहते हैं उन्हें कोई रोक नहीं है, वे वैसी ही जारी रख सकते हैं जैसे अभी चल रहा है. लेकिन तमिलनाडू की राजभाषा तमिल है. वहां जो तमिल भाषा में कार्यवाही चाहते हैं उनके लिए न्यायिक कार्यवाही तमिल में करनी होगी. यह प्रावधान न्याय को आम आदमी तक पहुँचाने के संकल्प को पूरा करने में सहयोगी होगा. इस सम्बन्ध में जो भी आधारभूत संरचना जैसे भाषान्तरण की व्यवस्था, द्वी भाषा विशेषज्ञ, सम्बंधित सॉफ्टवेयर, कर्मचारियों और न्यायाधीशों को समुचित ट्रेनिंग आदि की जवाबदेही सम्बंधित केंद्र या राज्य सरकार की होगी. यह विधेयक संविधान के अनुकूल है. आरम्भ में न्यायाधीशों को और कुछ वकीलों को थोड़ी कठिनाई हो सकती है लेकिन संविधान की भावन, महात्मा गांधी के संदेशों पर विश्वास रखने वाले हर नागरिक के लिए यह आवश्यक है कि अपना देश अपनी भाषा में काम करे.   


     


  1. विदेशों से उदाहरण 

यह सही है कि भारत बहुभाषी देश है जहाँ हिंदी के साथ ही कई अन्य समृद्ध भाषाएँ हैं. परन्तु कई देशों में ऐसी विविधता है. जैसे कनाडा के न्यायालय की भाषा अंग्रेजी और फ्रेंच दोनों है. यही नहीं, वहां न्यायालय के बारे में जानकारी १२ अन्य भाषाओं  में स्वयं शासन की वेबसाइट पर उपलब्ध है जिसमें  एक भाषा पंजाबी है. उसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतर्गत अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (हेग-नीदरलैंड) की भाषा भी अंग्रेजी और फ्रेंच दोनों है जिसका प्रावधान अंतरराष्ट्रीय न्यायालय संविधि १९४५ के अध्याय तीन की धारा ३९ में है. २००२ में गठित अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय [ICC] में कार्यालय की पांच भाषाएँ हैं  और अभी यह अंग्रेजी और फ्रेंच दोनों भाषाओं में कार्य कर रहा है. यूरोपियन कोर्ट आफ जस्टिस २३ भाषाओं में काम करती है. विश्व के अनेक देशों और संस्थाओं ने भाषा की बाधा को अपने ऊपर इतना हावी नहीं होने दिया है. भारत के अधिकांश उच्च न्यायालयों में कार्य उस राज्य की भाषा में नहीं होते. सर्वोच्च न्यायालय भी राजभाषा को भूलकर केवल अंग्रेजी में कार्य कर रहा है, यद्यपि कि मुख्य न्यायमूर्ति चंद्रचूड महोदय के आने के बाद से इस रूख में बदलाव आया है. इस सम्बन्ध में राज्य सरकार (विशेषकर केंद्र सरकार और संसद) को क़ानून बनाने के सम्बन्ध में निर्णय करना है. 

  1. कार्यपालिका की भूमिका 

लेकिन कुछ मामले ऐसे हैं जिसपर कार्यपालिका को और भी संवेदनशील होने की जरुरत है. इसका एक दृष्टान्त विक्रांत तोंगाद बनाम भारत संघ के मामले में मिलता है.   भारत सरकार ने २३ जनवरी २०२० को पर्यावरण के प्रभाव की जांच [Environment Impact Assessment] के सम्बन्ध में एक मसौदा [draft] जारी किया. यह मसौदा केवल हिन्दी और अंग्रेजी में था. इसपर जनता से सुझाव मांगे गए थे. दिल्ली उच्च न्यायालय में एक मामला विक्रांत तोंगाद महोदय द्वारा दायर किया गया था कि पर्यावरण के प्रभाव की जांच से सम्बंधित कानूनी प्रावधान [नोटीफिकेशन] को अन्य भारतीय भाषा में भी जारी किया जाये. 

b. Issue a Writ in the nature of Mandamus or any other appropriate writ, order, or direction to the Respondent to make translated copies of the draft notification available across the country in the official vernacular languages mentioned in the Eighth Schedule to the Constitution, and upload the same on all its websites including those of the Environment Ministries of all the States as well as those of the State Pollution Control Boards;



विक्रांत तोंगाद महोदय का भाषा संबंधी दो तर्क इस प्रकार था: 

9. The second issue canvassed by learned Senior Counsel for the petitioner was regarding the languages in which the draft notification dated 23rd March, 2020 (published in the Gazette of India on 11 th April, 2020) has been made available to the public. It was contended that the draft has been published only in English and Hindi, whereas it is proposed to have effect all over India and to several industries and comments have naturally been elicited from all over the country. …Learned Senior Counsel for the petitioner has pointed out that the respondent has, in the past, published its draft notification in several other languages also. He has drawn our attention to a notification dated 15 th September, 2010 issued in connection with the Coastal Regulation Zone in this regard. The said notification dated 15th September, 2010 states that the draft notification was published in nine coastal languages in addition to English and Hindi.

अर्थात यह ड्राफ्ट सारे भारत के लोगों को प्रभावित करता है. इसलिए इसे अन्य भारतीय भाषाओं में भी जरी करना चाहिए ताकि अधिकांश लोग इसे समझ सकें और अपनी राय रख सकें. यह तर्क सही था क्योंकि २१वी सदी के लोकतंत्र में जन भागीदारी केवल चुनाव तक सीमित नहीं होती. सरकार से सीधा संवाद जन प्रतिनिधि जैसे संसद, विधायक, पार्षद आदि तो करते ही हैं, लेकिन सूचना क्रांति दौर के लोकतंत्र में जनता स्वयं भी संवाद करने की स्थिति में है. इससे राजनीतिक दलों, लोगों,  मीडीया आदि का एकाधिकार भी कम होता है. भारत सरकार को तो इस तर्क की सराहना करते हुए सुझाव को स्वीकार करना चाहिए था. लेकिन भारत सरकार के कुछ विधिक अधिकारी इस तर्क को संकीर्ण विधिक प्रावधान की दृष्टि से देखने लगे. वे विधि “जैसी की वह है”[law as it is] पर केन्द्रित थे. उन्होंने कहा कि अन्य भाषाओं में जारी करने का कोई कानूनी प्रावधान राजभाषा अधिनियम, 1963 में नहीं है. विश्लेश्नात्मक या प्रमाणिक विधि शास्त्र [positivist school] में जान ऑस्टिन ने ऐसा ही तर्क किया है कि हमें कानून की मेरिट नहीं देखनी है. कानून अच्छा है कि बुरा है नहीं देखना है, केवल यह देखना है कि कानून है या नहीं क्योंकि लॉ कमांड ऑफ़ सॉवरेन है. जान ऑस्टिन के ज़माने में संप्रभु या सॉवरेन केवल राजा होता था. जनता उसकी सेवक थे. लेकिन लोकतंत्र में राजा सेवक होता है, और जनता संप्रभु होती है. कानून जनता की सेवा के लिए, उसके जीवन को सुखकर बनाने के लिए होता है. कानून का काम और उद्देश्य जनता के उचित और विधिपूर्ण कार्य को सुचारू रूप से चलाने में मदद करना है. उसके रस्ते में रोड़े अटकाना नहीं है. इसी कारण से जनता विधि के शासन में कानून का पालन करती है. खेद है कि भारत सरकार के कुछ अधिकारी इस मामले में भारतीय भाषा की महत्ता नहीं समझ पाए और “कालीदास” की तरह उसी डाली को काटने का काम किया जिसपर वे बैठे हैं. उनका तर्क कानूनी दृष्टि से संकीर्ण, और साक्षर तो था लेकिन दार्शनिक दृष्टी से निरक्षर था, [Legally literate but philosophically illiterate].

विक्रांत तोंगाद महोदय  का दूसरा तर्क था कि पहले भी कई भाषाओं में अधिसूचनाएं [notification] जारी हुए हैं. उच्च न्यायालय ने सहमत थी और उसने निम्नलिखित आदेश जारी किया : 

10. Having regard to the Notification which prohibits (i) modernization,(ii) expansion and (iii) establishment of several industries as stated in the Notification and also looking to the far reaching consequences of the public consultation process for which the draft notification has been published, we are of the view that it would be in aid of effective dissemination of the proposed notification if arrangements are made for its translation into other languages as well, at least those mentioned in the Eighth Schedule to the Constitution. Such translation may be undertaken by the Government of India itself, or with the assistance of the respective State Governments, where applicable. Such translations should also be published through the website of the Ministry of Environment, Forest and Climate Change, Government of India as well as on websites of Environment Ministries of all the States as well as those of State Pollution Control Boards, within ten days from today. This would further enable the public to respond to the draft within the period stipulated in this judgment.

दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्या न्यायाधीश डी एन पटेल और प्रतीक जालान की खंडपीठ ने आदेश दिया कि दस दिन के अन्दर सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराया जाए.  भारत सरकार ने अनुवाद नहीं कराया और दिल्ली उच्च न्यायालय ने न्यायिक अवमान की नोटिस जरी कर दी. भारत सरकार ने उच्चत्तम न्यायालय में दिल्ली उच्च न्यायालय अवमान आदेश के विरुद्ध अपील कर दी. यह दूसरा दुखद आश्चर्य था क्योंकि भारत सरकार को अनुवाद का काम करना चाहिए था. 

उच्चत्तम न्यायालय ने सरकार से २०२० में अनुरोध किया था कि वह राजकीय भाषा अधिनियम, १९६३ में संशोधन करे ताकि शासन के नोटीफीकेशन भारत की अन्य भाषाओं में भी जारी किये जा सकें क्योंकि अभी केवल हिन्दी और अंग्रेजी में ही इसे जारी करने का प्रावधान है. तत्कालीन  मुख्य न्यायामूर्ति बोबडे महोदय ने कारण बताते हुए सही ही कहा कि “There might be people in Karnataka, Nagaland or rural Maharashtra who might not know Hindi or English. Your government should consider amending the Official Languages Act.Your government should consider amendment of the Official Languages Act. These days, translation is the easiest thing on Earth. We translate judgments, Parliament has instant translation software. It is time for you to update your Act.” सर्वोच्च न्यायालय की सलाह यद्यपि कि एक obiter dicta थी, लेकिन भारत सरकार ने यह मान लिया. इससे लगता है कि या तो  कुछ विधिक अधिकारी संवेदनशील हैं, या उन्हें केवल तभी सदबुद्धी  आती है जब वे शीर्ष न्यायालय का मूड भांप लेते हैं. अंततः भारत सरकार ने देश की २२ भाषाओं  में “पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन ”  के ड्राफ्ट को नवम्बर में अपलोड कर दिया. 

हिंदी में अधिनियमों के पाठ को इंडिया कोड तथा एनी स्थानों पर उपलब्ध कराया गया है.  खुशी की बात है कि इंडिया कोड ने IPC को हिंदी में भी वहीं अपलोड कर दिया है, जहाँ अंग्रेजी में है,पहले यह अलग पेज पर था,अब ढूंढना व उपयोग करना आसान हुआ,अन्य भाषाओं में भी अपलोड करें.विधि क्षेत्र में भारतीय भाषाओं को जनजन तक पहुँचाने में यह अहम् कदम है. 

  1. निष्कर्ष

शासन में परिवर्तन के साथ ही प्रणाली में बड़ा परिवर्तन हो यह हमेशा नहीं हो पाता. नई व्यवस्था कई बार पुरानी प्रणाली को लेकर चलती है क्योंकि परिवर्तन की या तो इच्छा शक्ति नहीं होती या परिवर्तन के प्रवाह और परिणाम से शासन के लोग घबराते हैं. यह प्रसन्नता की विषय है कि २०१४ के बाद से शासन में जो परिवर्तन हुआ है उसने अपनी नीति और नीयत स्पष्ट कर दी है कि शासन देश के संविधान के अनुसार कोई भी बड़ा और कड़ा  निर्णय लेने में सक्षम है. भाषा का प्रश्न राज्य के विभिन्न अंगों के साहस, समन्वय और सोच  पर निर्भर है.   नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषा को क्रियान्वित किया जा रहा है. सर्वोच्च न्यायालय ने भी भाषा के मुद्दे पर अपना रूख में सकारात्मक बदलाव किया है. इस सम्बन्ध में निम्नलिखित सुझावों  पर ध्यान दिया जा सकता है-- 

१.  न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय यह भी देखना चाहिए कि क्या वह अंगरेजी के साथ ही किसी अन्य भारतीय भाषा में भी न्यायालय की कार्यवाही करने में इच्छुक है या नहीं. इसका यह अर्थ नहीं है कि न्यायाधीश को किसी भारतीय भाषा का विद्वान होना चाहिए.  यदि वह इच्छुक होगा तो सक्षमता स्वयं ही आ जायेगी.

२.  राष्ट्रीय और राज्य न्यायिक अकादमी में न्यायाधीशों, अधिवक्ताओं, आदि की ट्रेनिंग होनी चाहिए कि भारतीय भाषा में कैसे कार्य करें. इसके लिए कोर्से और मोडूल बानाने की जरुरत है जो भारतीय भाषा के सिपाहियों को बनाना होगा. 

३. सरकार मुख्य न्यायाधीश से सलाह लेकर, राष्ट्रपति की सहमति  से तमिलनाडू, बंगाल आदि राज्यों में वहां की भाषा को न्यायालय की भाषा घोषित करने का प्रयास आरम्भ करे. 

४. निर्णयों की प्रति बहुभाषा में यथा शीघ्र आसानी से ऑनलाइन उपलब्ध हो. २४ अप्रेल २०२३ को सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती के निर्णय [जिसमें बुनियादी ढांचा सिद्धांत प्रतिपादित किया] की हिन्दी प्रति को अपनी वेब साईट पर दाल दिया है.

५. विधि साहित्य प्रकाशन, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित न्यायालयों के निर्णय द्वि भाषा में प्रकाशित हों. 

६. हिंदी के ये निर्णय जो हजारों की संख्या में उपलध हैं, देश के विधि विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, अन्य विधिक संस्थानों के ग्रंथालयों में उपलब्ध हों. 

७. विधिक हिंदी भाषा या अन्य विधिक भारतीय भाषा अनिवार्य रूप से एलएलबी के पाठ्यक्रम में शामिल हो. 

८. विधि के अध्यापकों की नियुक्ति के समय यह भी देखा जाए कि अध्यापक अंगरेजी के अलावा हिन्दी या  किसी भारतीय भाषा में भी पढ़ने में सक्षम है या नहीं. 

९. मूट कोर्ट की प्रतियोगिताएं भारतीय भाषा में भी हो. 

१०. हिन्दी और अन्य भारतीय भाषों में विधिक शोध करने के लिए विधि विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, अन्य विधिक संस्थानों को आगे आना चाहिए. 


न्याय को सामान्य आदमी तक पहुचने में उच्चत्तम न्यायालय ने अनेक ऐतिहासिक फैसले दिए हैं. भाषा के मामले में सर्वोच्च न्यायालय को अन्य देशों से सीख लेनी चाहिए तभी न्याय का एक ऐसा दरवाजा खुलेगा जिससे सर्वोच्च न्यायालय सही अर्थों में भारत के सामान्य आदमी का न्यायालय कहा जाएगा. सरकार व समस्त विद्यावतियों को इस  पर गम्भीरता से विचार करना होगा। अन्यथा इतिहास  यह कहेगा कि भारवासियों  ने सौ साल अंग्रेजों से और सौ साल अंग्रेजी से लड़ने में बिताये।

 


लेखक इंडियन ला इंस्टिट्यूट, नई  दिल्ली में प्रोफेसर हैं.  ---9654629241

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