Thursday, 20 September 2018

Instant Triple Talaq Ordinance तीन तलाक अध्यादेश २०१८ [मुस्लिम महिला (विवाह अधिकारों का संरक्षण) अध्यादेश, २०१८] :

तीन तलाक अध्यादेश २०१८ [मुस्लिम महिला (विवाह अधिकारों का संरक्षण) अध्यादेश २०१८] सारे देश में २० सितम्बर २०१८ से लागू हो गया है लेकिन खेद है कि तकनीकी कारणों से यह जम्मू कश्मीर में लागू नहीं होगा. इस अध्यादेश में कुल ७ प्रावधान हैं. यह कानून केवल तत्काल तीन तलाक (तलाक ए बिद्दत) के मामलों में लागू है. उसे अवैध और अपराध घोषित करता है. मुस्लिम विधि में दिए जाने वाले अन्य प्रकार के तलाक पर यह क़ानून लागू नहीं है, वे अभी भी वैध हैं. एक स्वागत योग्य कदम है.
यह कई बार सुनने और पढने को मिलता है कि मुस्लिम पति ने अपनी पत्नी को तलाक तलाक तलाक कह दिया और अब उससे पत्नी का कोई रिश्ता नहीं है. इसे तत्काल तीन तलाक या तलाक ए बिद्दत कहा जाता है. इस क़ानून की धारा ३ के अनुसार पति द्वारा तत्काल तीन तलाक (तलाक ए बिद्दत) कहना गैर कानूनी और शून्य है और उसके तीन तलाक कहने का विवाह पर कोई असर नहीं पड़ेगा. न ही वह अब हराम होगी और न ही उसे हलाला करना पड़ेगा. (हलाला का अर्थ है—तलाकशुदा मुस्लिम पत्नी द्वारा पति के अलावे किसी अन्य व्यक्ति से शारीरिक सम्बन्ध बनाना जिसके बाद वह पुनः अपने पति के साथ पत्नी के रूप में रह सकती है. हलाला वास्तव में रेप या बलात्कार की श्रेणी में आता है क्योंकि अधिकांश हलाला मामलों में पत्नी राजी खुशी से पति के अलावा अन्य व्यक्ति से सम्बन्ध नहीं बनाती.) इस नए क़ानून की धारा ३ वास्तव में शायरा बानो के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय (२२ अगस्त २०१७) की विधायी स्वीकृति है. शायरा बानो के मुकदमे में संविधान पीठ के पांच सदस्यों में से तीन सदस्यों ने बहुमत से तत्काल तीन तलाक को गैर कानूनी माना था. (दो जजों ने इसे असांविधानिक माना जबकि एक जज ने इस्लाम के विरुद्ध बताया था). दो अल्पमत जजों ने इसे गैर कानूनी तो नहीं माना लेकिन गलत करार दिया और संसद को इसपर विधि बनाने का सुझाव दिया. तीन तलाक अध्यादेश २०१८ की धारा ३ का यह अर्थ हुआ कि तीन तलाक के कारण न तो मुस्लिम महिला को उसके घर से निकलना होगा और न ही कोई उसे निकाल सकता और न ही घर आने से रोक सकता है, न उसे धर्म के नाम पर हलाला जैसे कृत्य के लिए बाध्य होना होगा.
धारा ४ के अनुसार पति द्वारा तीन तलाक बोलने को अपराध घोषित किया गया है. ऐसा बोलने पर या लिखने पर या waatsapp पर या पत्र द्वारा या vdo कॉल पर आदि तरीकों से तत्काल तीन तलाक देने पर पति को तीन साल तक की जेल हो सकती है. ऐसी सैकड़ों घटनाएं विगत अनेक वर्षों से होती आ रही थीं. यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय के बाद भी ८० के आस पास ऐसी घटनाएं हुई थी. भारतीय समाज में चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम, पुरुष स्त्रियों पर अनेक बार अकारण निरंकुश तरीके से व्यवहार करते हैं, क्रूरता करते हैं. इसी कारण दहेज़ क़ानून १९६१ में आया. इसी कारण से 498A, भारतीय दंड संहिता में १९८३ में लाया गया. स्त्रियों के जानोमाल और सम्मान की रक्षा के लिए अन्य प्रावधान लाये गए. इनसे भारतीय समाज के सामंतवादी मानसिकता वाले पुरुष और उनका साथ देने वाले परिवार के लोगों में थोडा क़ानून का भय भी आया. यद्यपि कि इससे स्थिति में बहुत सुधार नहीं आया है और इन कानूनों का अनेक बार दुरूपयोग भी हो रहा है. लेकिन क्रूरता और मनमानेपन के काम को अपराध घोषित करने से कुछ लगाम लगी है. चुकी मुस्लिम समुदाय में भी तत्काल तीन तलाक क्रूरता और मनमानापन का आसन जरिया बन गया था, मुस्लिम पत्नियों और उनके बच्चों का जीवन, उनकी गरिमा और प्रतिष्ठा विनष्ट हो रही थी, सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद भी उसका कोई असर नहीं दीख रहा था और न ही मुस्लिम धार्मिक नेता इस अन्याय को कम करने के लिए कोई ठोस प्रयास कर रहे थे, न ही बड़ी संख्या में मुस्लिम बुद्धिजीवी तत्काल तीन तलाक की बुराई को रोकने के लिए खुल कर सामने आ रहे थे. इसलिए तत्काल तीन तलाक को अपराध घोषित करने के अलावा कोई चारा नहीं था.
धारा ५ के अनुसार पत्नी को पति से अपना और अपने बच्चे के भरण पोषण के लिए रोज का खर्च लेने का अधिकार है. यह प्रावधान इसलिए आवश्यक था क्योंकि पुलिस में मामला जाने के बाद पति या उसके परिवार के लोग बदला लेने के लिए पत्नी को उसकी रोज की जरूरत से महरूम कर सकते हैं.
धारा ६ में उसे अधिकार है कि वह अवयस्क बच्चे (१८ साल तक ) को अपने पास रख सकती है. उसकी कस्टडी उसे दी जायेगी.
धारा ७ (क) के अनुसार तत्काल तीन तलाक का अपराध आंशिक रूप से ही संज्ञेय है. अर्थात, पुलिस तत्काल तीन तलाक का मुकदमा केवल तभी दर्ज करेगी और पति को गिरफ्तार केवल तभी किया जा सकता है जबकि तत्काल तीन तलाक का मामला पत्नी स्वयं या उसके निकट के रिश्तेदार दर्ज करते हैं. यदि तत्काल तीन तलाक की सूचना पत्नी के दोस्तों या दूर के रिश्तेदारों या पड़ोसियों से मिलती है तो पुलिस FIR दर्ज करने के लिए बाध्य नहीं है और न ही मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना ही उसे गिरफ्तार कर सकती है. धारा ७ (ख) के अनुसार यह अपराध compoundable या शमनीय है अर्थात पत्नी चाहे तो मजिस्ट्रेट की अनुमति से इस मामले को रफा दफा करा सकती है. धारा ७ (ग) के अनुसार यदि पत्नी या उसके निकट के रिश्तेदारों ने तत्काल तीन तलाक का मामला दर्ज कराया है, और पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया है, तो बेल या जमानत देने के पहले मजिस्ट्रेट पीड़ित मुस्लिम पत्नी को जरूर सुनेगा, और तभी उचित आधारों पर जमानत देगा. यह आवश्यक नहीं है कि पुलिस उसे गिरफ्तार करे ही क्योंकि ७ साल से कम की सजा वाले में पुलिस को धारा ४१क दंड प्रक्रिया संहिता, CrPC 1973 के अंतर्गत पहले नोटिस देना जरूरी है. बिना नोटिस केवल आपवादिक दशा में ही गिरफतार कर सकती है, जैसे आरोपी से ख़तरा हो, भाग जाने की संभावना हो आदि. [अर्नेश कुमार के मामले में भी २ जुलाई २०१४ को सर्वोच्च न्यायालय की दो न्यायाधीशों की पीठ ने यही निर्देश जारी किया है कि अनावश्यक गिरफ्तारी होने पर पुलिस के विरुद्ध विभागीय कार्यवाही होगी और न्यायालय की अवमानना का मामला भी बनेगा. १४ सितम्बर २०१८ को सोशल एक्शन फोरम फार मानव अधिकार (या राजेश शर्मा-२) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ (तीन न्यायाधीश) ने अर्नेश कुमार के निर्देशों पर अपनी मुहर लगा दी है.] इसलिये जब तक आवश्यक न हो पुलिस मुस्लिम पति को गिरफ्तार नहीं कर सकती. यदि पति पत्नी से गिले शिकवे दूर कर ले तो तत्काल तीन तलाक का अपराध को कोर्ट समाप्त कर देगी. उसे जेल जाने की नौबत ही नहीं आयेगी. इस प्रकार तीन तलाक अध्यादेश २०१८ [मुस्लिम महिला (विवाह अधिकारों का संरक्षण) अध्यादेश, २०१८] न केवल मुस्लिम स्त्रियों के “अबला जीवन” को “सबला जीवन” में बदलेगा, उनके दुःख को थोड़ा कम करेगा, वरन भारत में हर धर्म की महिलाओं पर हो रहे विभेद और अत्याचार को रोकने की दिशा में एक मील का पत्थर साबित होगा. हिन्दू पारिवारिक विधियों में भी जो बुराइयां हैं या कमियां हैं, उन्हें भी क़ानून बनाकर दूर करने की जरूरत है.

Saturday, 8 September 2018

District Court Judges who became judge of the Supreme Court-


यह अक्सर कहा जाता है कि उच्चतम न्यायालय में केवल पहुंच वालों की या बड़े वकीलों  जज के घर वालों की नियुक्ति होती है। यह बात सच हो सकती है लेकिन यह भी सच है कि सामान्य घर के लोग (जस्टिस कपाड़िया पूर्व cji), भी अपनी मेहनत और लगन से शीर्ष तक पहुंचते हैं। मित्रों के साथ whatsapp पर चर्चा के दौरान जो जानकारी मिली वह उत्साहवर्धक है--
Judges who appointed in Supreme court but we're district judge.
1. Justice Banumathi appointed in as district judge in 1988, then elevated to high court in 2003, then in Supreme court in 2014.
 2. Justice AM Ahmadi Appointed in Ahmadabad district court in 1964, then elevated to Gujrat high court in 1974 the in the Supreme court in 1988.
3. K. T. Thomas (Justice), 1977 dist judge, kerala, 1985 high court and 1996 supreme court.
4. Chokkalingam Nagappan, 1987 district judge, 2000 HC Madras and 2013 Supreme court
5. Justice Prafulla Chandra Pant, 1976, he qualified up pcs,j. In 1990 promoted to district judge in up. 2004 additional judge high court uttarakhand, 2008 permanent judge High Court uk, 2014 supreme court
6. Ms. Justice M. Fathima Beevi, Born on 30.4.1927 in Pathanamthitta (Kerala); Father: Mr. Meera Sahib; Family: Single, living with Mother Khadeeja Bibi. Schooling from Catholicate High School, Pathanamthitta, B.Sc. (University College, Trivandrum), B.L. (Law College, Trivandrum); Enrolled as Advocate on 14.11.1950, Appointed as Munsiff in the Kerala Sub-ordinate Judicial Services in May, 1958, Promoted as the Sub-ordinate Judge in 1968, Promoted as the Chief Judicial Magistrate in 1972, Promoted District & Sessions Judge in 1974, Appointed as the Judicial Member of the Income Tax Appellate Tribunal in January, 1980, Elevated to the High Court as a Judge on 4.8.1983, Became permanent Judge of the High Court on 14.3.1984.Retired as the Judge of the High Court on 29.4.1989. Elevated to the Supreme Court as a Judge on 6.10.1989....https://www.sci.gov.in/chief-justice-judges

7. Palekar, Devidas Ganpat, B.A., LL.B.-Born 4th September, 1909 in North Kanara District; Educated at Government High School, Karwar, Elphinstone College and Government Law College, Bombay. Enrolled as an Advocate of Bombay High Court on 2nd February 1934. Practised both Civil and Criminal cases on the Appellate Side of that High Court. Joined Bombay Judicial Service as Civil Judge, Junior Division, on 9th June 1939. Became Assistant Judge and Assistant Sessions Judge in September, 1949. Deputy Secretary to the State Government in Legal Department from 1954 to 1956. District Judge from August, 1956 to September, 1958. Appointed as Additional Registrar of Bombay High Court from October, 1958 and became Registrar of that High Court on 15th January 1959. Appointed as Additional Judge of the High Court at Bombay for two years from 14th October 1961. Permanent Judge from 27th August 1962. Judge, Supreme Court of India from 19th July 1971.


There are others who qualified subordinate judiciary but resigned and finally made way to the Supreme Court of India, like Swatantra Kumar